Sunday, March 21, 2010

पत्रकारिता को दलालों से बचाओ

आज इस पत्रकारिता के बदलते परिवेश को देख कर बहुत दुख होता है। मन यही सोचने लगता हैं कि आज की पत्रकारिता चंद लोगों की वजह से व्यवसाय का रुप अख्तियार करती जा रही है। पत्रकारिता के जूनून और सोच वाले शायद कुछ ही पत्रकार बचे हैं। अभी कुछ दिन पूर्व एक मशहूर फिल्म डायरेक्टर ने हमारी मीडिया के ऊपर फिल्म बनाई तो हम सभी एक छत के नीचे आ गये थे क्योंकि कल तक हम खबर लिखते थे और आज हम खुद खबर बनने जा रहे थे। लेकिन क्या कभी हमने गौर किया है कि ऐसा क्यो हुआ? क्यों कि आज पत्रकारिता का स्तर गिरता जा रहा हैं। हर आम व्यक्ति को मीडिया का ग्लैमर और पैसा कमाने की चाह उसे इस ओर खीच लाती हैं। इन लोगो को पत्रकारिता के जज्बे एवं जूनून से कोई मतलब नहीं। उन्हें तो केवल अपने पैसे को दो से चार गुना करना होता है और सबसे दिलचस्प पहलू ये है कि इन्हे पत्रकारिता का “प” भी नही आता। ये पत्रकारिता के उन चन्द दलालों को अपने साथ जोड़ते है, जिनका ध्येय पत्रकारिता नही सिर्फ दलाली हैं। उन्हे शाम होते ही शराब, मांस और पैसे की जरुरत होती जिसका ये फर्जीवाड़े वाले बेहतर फायदा उठाते है और दिल खोल कर इन पर धन वर्षा करते है, क्योंकि ये इनके भष्विय के ड्राफ्ट होते हैं।दो माह पूर्व कुछ इस तरह का अनुभव मुझे भी हुआ। मुझे किसी ने बताया कि एक नया न्यूज चैनल आ रही है ”मी न्यूज“ मैने वहां अपना बायोडाटा भेजा और जब मैं वहां पहुंचा तो मुझसे मेरी काबलियत की बजाये पूछा गया कि आप उत्तरपदेश से कितना पैसा निकाल कर देगे? मैं बोला कि मुझे इसका कुछ भी आईडिया नही है, क्योंकि मैंने आज तक सिर्फ शुद्ध पत्रकारिता की है। मैं खबर और स्टोरी आपको सबसे बेहतर दे सकता हूँ। शायद मेरी फेस वैल्यू को देखते हुये उन्होने मुझे उत्तरप्रदेश का ब्यूरो में नियुक्त कर दिया और कुछ समय बाद मुझसे न्यूज कार्डिनेटर का पद सम्भालने को भी कहा गया ( बिना लिखा - पढ़ी के और शायद यही मेरे जीवन की सबसे गलती थी, क्योंकि जिन्हे पत्रकारिता का पा नही मालूम वो जा रहे थे न्यूज चैनल चलाने)। मैंने लखनऊ में कार्यालय बनाकर खबरो का संकलन करना प्रारम्भ किया। कुछ दिन बाद मुझे दिल्ली के एक पत्रकार मित्र ने चैनल के मालिक और इस चैनल की हकीकत बताई कि इनका तो लाईसेन्स ही नही है। तो मैने इस्तीफा देकर अपनी छवि बचाना उचित समझा (मेरे पारिश्रमिक का भुगतान अभी तक नही किया गया)। इस बात से मुझे ये तो अनुमान हो गया कि इन्हे पत्रकार की नही दलाल की जरूरत थी, जो अपने चेहरे को बेच कर इनकी तिजोरी भर सके। इस घटना से मैं काफी आहत हुआ, और अधिक जानकारी करने पर पता चला कि मीडिया का गढ़ कहे जाने वाली दिल्ली में इनकी छवि अच्छी नही हैं।
मुझे लगा कि जिस तरह मैं इस फर्जीवाड़े का शिकार होते - होते बच गया। कहीं और पत्रकार बंधू इस फर्जीवाड़े के शिकार न हो जाये। इसके लिये मैने सूंचना एंव प्रसारण मंत्रालय और वेबसाईट के माध्यम से यह खबर आम लोगो तक पहुँचाने का प्रयास किया। जिसके फलस्वरूप मुझे फोन पर धमकियाँ मिलनी शुरू हो गयी और मुझसे ये कहा जा रहा है कि तुम्हे इसका सबक जरूर सिखायेगे। हालांकि जब मैं पत्रकारिता में आया था तो यह सोच कर आया था कि अपनी कलम से केवल सच लिखूंगा और यह कभी नही रूकेगी। लेकिन आज मन के किसी कोने में ये आशंका भी हो रही है कि इन फर्जी कार्य करने वालो की कोई अपनी छवि तो होती नही है, लेकिन ये मुझे किसी कृत्य में फंसा कर मेरी छवि को धूमिल करने का प्रयास जरूर करेगें।मैं आप सभी पत्रकार बंधुओं से पूछना चाहता हूँ कि क्या सच्चाई लिखना गलत है, क्या पत्रकारिता के इन दलालो को इस परिसर से बाहर नही निकालना चाहिये? क्योंकि काम तो ये करते है और बदनाम हम होते हैं। शायद कुछ यही कारण रहे है कि ”कल तक हम खबर लिखते थे और आज खुद खबर बन गये हैं।“

आपका सहयोगी

अखिलेश चन्द्रा
लेखक पत्रकार हैं. संपर्क : akhilesh_lovey@yahoo.com)